Vishuddha Manusmriti PDF in Hindi | विशुद्ध मनुस्मृति

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पुस्तक का विवरण (Description of Book) :-

पुस्तक का नाम (Name of Book)विशुद्ध मनुस्मृति | Vishuddha Manusmriti
पुस्तक का लेखक (Name of Author)Dr. Surendra Kumar
पुस्तक की भाषा (Language of Book)हिंदी | Hindi
पुस्तक का आकार (Size of Book)4 MB
पुस्तक में कुल पृष्ठ (Total pages in Ebook)692
पुस्तक की श्रेणी (Category of Book)Religious

पुस्तक के कुछ अंश (Excerpts From the Book) :-

Vishuddha Manusmriti in Hindi PDF Summary

विशुद्ध मनुस्मृति डॉ. सुरेंद्र कुमार द्वारा लिखित एक हिंदी पुस्तक है। यह पुस्तक मनुस्मृति के उन श्लोकों का संकलन है, जिन्हें डॉ. सुरेंद्र कुमार ने प्रक्षिप्त माना है। डॉ. सुरेंद्र कुमार का मानना है कि ये श्लोक मनुस्मृति के मूल पाठ में नहीं थे, बल्कि बाद में जोड़े गए थे।

विशुद्ध मनुस्मृति में डॉ. सुरेंद्र कुमार ने मनुस्मृति के उन श्लोकों की व्याख्या भी की है, जिन्हें उन्होंने प्रक्षिप्त माना है। उन्होंने यह भी बताया है कि इन श्लोकों को किस उद्देश्य से जोड़ा गया होगा।

विशुद्ध मनुस्मृति एक महत्वपूर्ण पुस्तक है, क्योंकि यह मनुस्मृति के बारे में हमारी समझ को बदल देती है। डॉ. सुरेंद्र कुमार ने यह साबित किया है कि मनुस्मृति में ऐसे श्लोक हैं, जो मनुस्मृति के मूल पाठ में नहीं थे, बल्कि बाद में जोड़े गए थे। इन श्लोकों को इस उद्देश्य से जोड़ा गया था कि मनुस्मृति को एक ऐसा धर्मग्रंथ बनाया जा सके, जो वर्ण व्यवस्था और जाति प्रथा का समर्थन करता हो।

विशुद्ध मनुस्मृति उन सभी लोगों के लिए एक आवश्यक पुस्तक है, जो मनुस्मृति के बारे में जानना चाहते हैं और जो भारतीय समाज में जाति प्रथा के उन्मूलन के लिए काम कर रहे हैं।

स्मृतियों या धर्मशास्त्रों में मनुस्मृति सर्वाधिक प्रामाणिक आर्ष ग्रन्थ है। मनुस्मृति के परवर्तीकाल में अनेक स्मृतियाँ प्रकाश में आयीं किन्तु मनुस्मृति के तेज के समक्ष वे अपना प्रभाव न जमा सकीं, जबकि मनुस्मृति का वर्चस्व आज तक पूर्ववत् विद्यमान है। मनुस्मृति में एक ओर मानव समाज के लिए श्रेष्ठतम सांसारिक कर्त्तव्यों का विधान है,

तो साथ ही मानव को मुक्ति प्राप्त कराने वाले आध्यात्मिक उपदेशों का निरूपण भी है, इस प्रकार मनुस्मृति भौतिक एवं आध्यात्मिक आदेशों-उपदेशों का मिला-जुला अनूठा शास्त्र है ।

इसके साथ-साथ सभी धर्मशास्त्रों से प्राचीन होने और सृष्टि के प्रारम्भिक काल का शास्त्र होने का गौरव भी मनुस्मृति को ही प्राप्त है। शतपथ, तैत्तिरीय, काठक, मैत्रायणी, ताण्ड्य आदि ब्राह्मणों में मनु का उल्लेख होना और “मनुर्वै यत्किञ्च्चावदत् तद् भैषजम्” अर्थात् ‘मनु ने जो कुछ कहा है, वह भेषज औषध के समान गुणकारी एवं कल्याणकारी है’, आदि वचनों का प्राप्त होना मनुस्मृति को उक्त वैदिक साहित्य से प्राचीन और विशिष्ट धर्मशास्त्र सिद्ध करता है।

प्राचीन साहित्य में मनुस्मृति का काल आदिसृष्टि में माना है। उसका अभिप्राय यही है कि मनु मानव एवं मानव समाज की मर्यादाओं, व्यवस्थाओं के सर्वप्रथम उपदेष्टा थे। मनु की व्यवस्थाएँ सार्वकालिक एवं सार्वभौमिक रूप में सत्य एवं व्यावहारिक हैं। इसका कारण यह है कि मनुस्मृति वेदमूलक है ।

वेदमूलक होना मनुस्मृति की एक और परमविशेषता है। इस विशेषता के कारण भी मनुस्मृति को सर्वाधिक सम्मान मिला। शास्त्रकारों ने मनुस्मृति के महत्त्व को निर्विवाद रूप में स्वीकार करते हुए ही यह स्पष्ट घोषणा की है कि-

मनुस्मृति- विरुद्धा या सा स्मृतिर्न प्रशस्यते । वेदार्थोपनिबद्धत्वात् प्राधान्यं हि मनोः स्मृतेः ॥
(बृहस्पति स्मृति, संस्कारखण्ड १३-१४)

अर्थात् – ‘जो स्मृति मनुस्मृति के विरुद्ध है, वह प्रशंसा के योग्य नहीं है। वेदार्थों के अनुसार वर्णन होने के कारण मनुस्मृति ही सब में प्रधान और प्रशंसनीय है।’

इस प्रकार अनेकानेक विशेषताओं के कारण मनुस्मृति मानवमात्र के लिए उपयोगी एवं पठनीय है। किन्तु खेद के साथ कहना पड़ता है कि आज ऐसे उत्तम और प्रसिद्ध ग्रन्थ का पठन-पाठन लुप्त प्रायः होने लग रहा है। इसके प्रति लोगों में अश्रद्धा की भावना घर करती जा रही है। इसका कारण है- ‘मनुस्मृति में प्रक्षेपों की भरमार होना’ ।

प्रक्षेपों के कारण मनुस्मृति का उज्ज्वल रूप गन्दा एवं विकृत हो गया है। परस्परविरुद्ध, प्रसंगविरोध एवं पक्षपातपूर्ण बातों से मनुस्मृति का वास्तविक स्वरूप और उसकी गरिमा विलुप्त हो गये हैं। एक महान् तत्त्वद्रष्टा ऋषि के अनुपम शास्त्र को स्वार्थी प्रक्षेपकर्त्ताओं ने विविध प्रक्षेपों से दूषित करके न केवल इस शास्त्र के साथ अपितु महर्षि मनु के साथ भी अन्याय किया है। इस अनुसन्धान कार्य एवं भाष्य की विशेषताएँ-

( १ ) प्रक्षिप्त श्लोकों के अनुसन्धान के मानदण्डों का निर्धारण और उन पर समीक्षा- इस प्रकाशन का सबसे प्रमुख प्रयोजन यही है कि मनुस्मृति के दूषित, गदले, विकृत रूप को दूरकर उसका अधिकाधिक वास्तविक स्वरूप प्रस्तुत करना। वैसे तो बाजार में हिन्दी संस्कृत की टीकायुक्त मनुस्मृति के सैकड़ों प्रकाशन उपलब्ध हैं, और कई सौ वर्षों से मनुस्मृति पर लेखन कार्य होता चला आ रहा है, किन्तु अभी तक इस दृष्टि से और इस रूप में किसी भी भाष्यकार ने कार्य नहीं किया।

महर्षि दयानन्द के वचनों से प्रेरणा एवं मार्गदर्शन प्राप्त करके मनुस्मृति के प्रक्षेपों के अनुसन्धान का यह कठिन एवं उलझन भरा कार्य प्रारम्भ किया और कई वर्षों तक सतत प्रयास के परिणामस्वरूप मनुस्मृति के प्रक्षेपों को निकालने का कार्य सम्पन्न हो पाया है। यद्यपि अभी इस अनुसन्धान कार्य को ‘अन्तिम’ नहीं कहा जा सकता, किन्तु इतना अवश्य है कि अधिकांश प्रक्षेपों के निकल जाने से मनुस्मृति का वह दूषित, विकृत और गदला स्वरूप पर्याप्त रूप से दूर हो गया और उसका उज्ज्वल वास्तविक रूप सामने आ गया है।

प्रक्षेपों को निकालने में किसी पूर्वाग्रह या पक्षपात की भावना का आश्रय न लेकर तटस्थता को अपनाया है और ऐसे’ आधारों’ या ‘ मानदण्डों को आधार बनाया है, जो सर्वसामान्य और साहित्यिक हैं। वे हैं – ( १ ) अन्तर्विरोध या परस्परविरोध, (२) प्रसंगविरोध, (३) विषयविरोध या प्रकरणविरोध, (५) अवान्तर- विरोध, (६) शैलीविरोध, (६) पुनरुक्ति, (७) वेदविरोध । ये सभी मानदण्ड कृति के अन्तः साक्ष्य पर आधारित हैं।

मनुस्मृति (सम्पूर्ण संस्करण) के सभी श्लोकों को यथास्थान, यथाक्रम रखते हुए जहाँ-जहाँ प्रक्षेप हैं, वहाँ-वहाँ उन पर पूर्वोक्त आधारों के नामोल्लेख पूर्वक ‘अनुशीलन’ नामक समीक्षा दे दी गयी है, जिससे पाठक स्वयं भी उनकी परीक्षा कर सकें। उपलब्ध मनुस्मृतियों में कुल श्लोक संख्या २६८५ है । मेरे प्रक्षेपानुसन्धान कार्य के पश्चात् १४७१ श्लोक प्रक्षिप्त सिद्ध हुए हैं और १२१४ श्लोक मौलिक ।

(२) विभिन्न शास्त्रों के प्रमाणों से पुष्ट अनुशीलन समीक्षा – प्रक्षिप्त श्लोकों के विवेचन के अतिरिक्त लगभग ६०० श्लोकों पर ‘ अनुशीलन’ समीक्षा देकर उसमें श्लोक के भावों, गुत्थियों, विवादों, मान्यताओं तथा अन्यान्य विचारणीय बातों पर मनन किया गया है और अधिक से अधिक स्पष्ट करने तथा सुलझाने का प्रयास किया गया है।

अनेक स्थलों पर विषय को तालिकाओं के द्वारा भी स्पष्ट किया गया है। समीक्षा में वेदों, ब्राह्मणग्रन्थों, संहिताओं, उपनिषदों, दर्शनों, व्याकरण एवं सूत्रग्रन्थों, निरुक्त, सुश्रुत तथा कौटिल्य- अर्थशास्त्र आदि के अनेक प्रमाण देकर उनसे मनु की मान्यताओं और भावों का समन्वय स्थापित करते हुए उन्हें और अधिक प्रमाणित एवं पुष्ट किया गया है। अनेक पदों का व्याकरण देकर उनका अर्थ भी उद्घाटित किया है

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