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Lottery Book PDF Download by Premchand

लाॅटरी – मुंशी प्रेमचन्द | Lottery Book PDF Download by Premchand

Updated On:

Category: कहानियाँ / Stories

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पुस्तक का विवरण (Description of Book) :-

पुस्तक का नाम (Name of Book)लाॅटरी | Lottery PDF
पुस्तक का लेखक (Name of Author)प्रेमचंद / Premchand
पुस्तक की भाषा (Language of Book)हिंदी | Hindi
पुस्तक का आकार (Size of Book)5 MB
पुस्तक में कुल पृष्ठ (Total pages in Ebook)25
पुस्तक की श्रेणी (Category of Book)कहानियाँ / Stories

पुस्तक के कुछ अंश (Excerpts From the Book) :-

लॉटरी

जल्दी से मालदार हो जाने की हवस किसे नहीं होती? उन दिनों जब लॉटरी के टिकट आये, तो मेरे दोस्त, विक्रम के पिता, चचा, अम्मी और भाई, सभी ने एक-एक टिकट ख़ौद लिया। कौन जाने किसकी तकदीर जोर करे? किसी नाम आये, रुपया रहेगा तो घर में हीमगर विक्रम को सब्र न हुआ औरों के नाम रुपये आयेंगे, फिर उसे कौन पूछता है?

बहुत होगा, दस – पाँच हज़ार उसे दे देंगे। इतने रुपयों में उसका क्या होगा? उसकी ज़िन्दगी में बड़े – बड़े मंसूबे थे। पहले तो उसे सम्पूर्ण जगत की यात्रा करनी थी,

एक-एक कोने की। पेरू और ब्राज़ील और टिम्बकटू और होनोलूलू, ये सब उसके प्रोग्राम में थे। वह आँधी की तरह महीने – दो महीने उड़कर लौट आने वालों में न था । वह एक-एक स्थान में कई-कई दिन ठहरकर वहाँ के रहन-सहन, रीति-रिवाज़ आदि का अध्ययन करना और संसार – यात्रा का एक वृहद ग्रन्थ लिखना चाहता था। फिर उसे एक बहुत बड़ा पुस्तकालय बनवाना था, जिसमें दुनियाभर की उत्तम रचनाएँ जमा की जायें ।

पुस्तकालय के लिए वह दो लाख तक खर्च करने को तैयार था, बँगला, कार और फ़र्नीचर तो मामूली बातें थीं। पिता या चचा के नाम रुपये आये, तो पाँच हज़ार से ज़्यादा का डौल नहीं, अम्माँ के नाम आये, तो बीस हज़ार मिल जायेंगे; लेकिन भाई साहब के नाम आ गये, तो उसके हाथ धेला भी न लगेगा।

वह आत्माभिमानी था। घरवालों से खैरात या पुरस्कार के रूप में कुछ लेने की बात उसे अपमान – सी लगती थी। कहा करता था – भाई, किसी के सामने हाथ फैलाने से तो किसी गड्ढे में डूब मरना अच्छा है। जब आदमी अपने लिए संसार में कोई स्थान न निकाल सके, तो यहाँ से प्रस्थान कर जाये ?

वह बहुत बेकरार था। घर में लॉटरी टिकट के लिए उसे कौन रुपये देगा और वह माँगे भी तो कैसे? उसने बहुत सोच-विचार कर कहा- क्यों न हम तुम साझे में एक टिकट ले लें ?

तजवीज़ मुझे भी पसन्द आयी। मैं उन दिनों स्कूल – मास्टर था। बीस रुपये मिलते थे। उसमें बड़ी मुश्किल से गुज़र होती थी। दस रुपये का टिकट खरीदना मेरे लिए सुफ़ेद हाथी ख़रीदना था। हाँ, एक महीना दूध, घी, जलपान और ऊपर के सारे खर्च तोड़कर पाँच रुपये की गुंजाइश निकल सकती थी। फिर भी जी डरता था। कहीं से कोई बलाई रकम मिल जाये, तो कुछ हिम्मत बढ़े।

विक्रम ने कहा- कहो तो अपनी अँगूठी बेच डालूँ? कह दूँगा, उँगली से फिसल पड़ी।

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