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Brahmvaivart Puran book in Hindi

ब्रह्मवैवर्त पुराण पीडीएफ डाउनलोड हिंदी में | Brahma Vaivarta Purana PDF Download In Hindi

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Category: वेद-पुराण / Ved-Puran

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ब्रह्मवैवर्त पुराण कथा हिंदी में – Brahma Vaivarta Purana in Hindi

पुराण भारत की सर्वोत्कृष्ट निधि हैं। प्राचीन काल से ही भारतवर्षमें पुराणों का बड़े आदरके साथ पठन, श्रवण, मनन और अनुशीलन होता आया है। भारतीय जनताके हृदयमें भक्ति, ज्ञान, वैराग्य, सदाचार तथा धर्मपरायणताको दृढ़तापूर्वक प्रतिष्ठित करनेका श्रेय पुराणोंको ही है। वेदादि शास्त्रों के गूढ़तम तत्त्वों एवं रहस्योंको सरल, रोचक एवं मधुर आख्यान-शैलीमें सर्वसाधारणके लिये सुलभ (उपलब्ध) करा देना पुराणोंकी अपूर्व विशेषता है। इसीलिये पुराणों को अत्यधिक लोकप्रियता प्राप्त हुई है।

ब्रह्मवैवर्त पुराण वेदमार्ग का दसवाँ पुराण है। अठारह पुराणों में प्राचीनतम पुराण ब्रह्मवैवर्त पुराण को माना गया है। इस पुराण में जीव की उत्पत्ति के कारण और ब्रह्माजी द्वारा समस्त भू-मंडल, जल-मंडल और वायु-मंडल में विचरण करने वाले जीवों के जन्म और उनके पालन पोषण का सविस्तार वर्णन किया गया है।

पुराणों की ऐसी महत्ता और उपयोगिताको ध्यान में रखते हुए गीताप्रेसद्वारा ‘कल्याण’ के विशेषाङ्कों के रूपमें समय-समयपर अनेक पुराणों के सरल तथा सरस हिन्दी अनुवाद जनहित में प्रकाशित किये जा चुके हैं। जिन्हें विद्वानों, विचारकोंसहित बहुसंख्यक ग्राहकों तथा प्रेमी पाठकों द्वारा पर्याप्त समादर प्राप्त हुआ है।
‘संक्षिप्त ब्रह्मवैवर्तपुराणाङ्क‘ प्रथम बार ‘कल्याण’ – वर्ष ३७ (सन् १९६३ ई० ) के विशेषाङ्कके रूपमें प्रकाशित हुआ था। इसका ( १,४१,००० का बृहत् ) प्रथम संस्करण शीघ्र समाप्त हो जानेके पश्चात् इसके पुनर्मुद्रणके लिये प्रेमी पाठकों द्वारा निरन्तर प्रेमाग्रह बना रहा। फलस्वरूप इसके कुछ पुनर्मुद्रित संस्करण भी बादमें प्रकाशित किये गये। इस निरन्तरताको बराबर बनाये रखनेके उद्देश्यसे अब यह ‘संक्षिप्त ब्रह्मवैवर्तपुराण’ ग्रन्थाकारमें आपकी सेवामें प्रस्तुत है।
‘ब्रह्मवैवर्तपुराण’ मुख्यतः वैष्णव पुराण है। इसके मुख्य प्रतिपाद्य देवता विष्णु- परमात्मा श्रीकृष्ण हैं। यह चार खण्डोंमें विभाजित है- ब्रह्मखण्ड, प्रकृतिखण्ड, गणपतिखण्ड तथा श्रीकृष्णजन्मखण्ड । ब्रह्मखण्ड में सबके बीजरूप परब्रह्म परमात्मा ( श्रीकृष्ण) के तत्त्वका निरूपण है। प्रकृतिखण्ड में प्रकृतिस्वरूपा आद्याशक्ति ( श्रीराधा) तथा उनके अंश से उत्पन्न अन्यान्य देवियोंके शुभ चरित्रोंकी चर्चा है। गणपतिखण्ड में ( परमात्मस्वरूप ) श्रीगणेशजीके जन्म तथा चरित्र आदिसे सम्बन्धित कथाएँ हैं। श्रीकृष्णजन्मखण्ड में ( परब्रह्म परमात्मारूप ) श्रीकृष्णके अवतार तथा उनकी मनोरम लीलाओंका वर्णन है। सारांशतः इसमें भगवान् श्रीकृष्ण और उनकी अभिन्नस्वरूपा प्रकृति-ईश्वरी श्रीराधाकी सर्वप्रधानताके साथ गोलोक – लीला तथा अवतार लीलाका विशद वर्णन है। इसके अतिरिक्त इसमें कुछ विशिष्ट ईश्वरकोटिके सर्वशक्तिमान् देवताओंकी एकरूपता, महिमा तथा उनकी साधना-उपासनाका भी सुन्दर प्रतिपादन है।
इसकी सभी कथाएँ अतीव रोचक, मधुर, ज्ञानप्रद और कल्याणकारी हैं। इसका अध्ययन साधनोपयोगी और सदैव कल्याणप्रद है।

ब्रह्मवैवर्त पुराण में क्या लिखा है? (What is written in Brahmvaivart Puran?)

‘ब्रह्म वैवर्त पुराण’ अठारहों पुराणों में एक दृष्टि से विशिष्ट स्थान रखता है । श्रन्य पुराणों में जहाँ अधिकांश वर्णन पाँच मुख्य विभागों से सम्बन्धित होते हैं, वहाँ ‘ब्रह्म वैवर्त में सृष्टि की उत्पत्ति का थोड़ा-सा वर्णन कर देने के प्रतिरिक्त शेष में ऐसी कयाएँ और साम्प्र दायिक साधनाएँ और उपासनाएँ दी हैं, जो अन्यत्र बहुत ही कम पाई जाती हैं । इसके सभी कथानकों में कुछ नवीनता है और कितनी बातें तो ऐसी हैं जिनका अन्य किसी भी पुराण में उल्लेख नहीं है । इसीलिए भारम्भ में दी गई ‘अ’ में लेखक ने स्वयं कह दिया है –
पुराणपुराणानां वेदानां भ्रम भंजनम् । हरिभक्ति प्रदं सर्वतत्वज्ञान विविर्द्धनम् || कामितां कामदञ्वेदं मुमुक्षू पांच मोक्षदम् । भक्तिप्रदं वैष्णवानां कल्पवृक्षस्वरूपकम् ॥
श्रर्थात् ‘समस्त पुराणों और उप-पुराणों तथा वेदों के भ्रम का भंजन करने वाला, हरि-भक्ति का उत्पादक, समस्त तात्विक ज्ञान की वृद्धि करने वाला, कामियों की कामना की पूर्ति करने वाला और मोक्षा भिलाषियों को मोक्ष दिलाने वाला, वैष्णव जनों को भगवत् भक्ति का मार्गदर्शक यह ‘ब्रह्म वैवर्त पुराण’ है । इस प्रकार इसे एक कल्पवृक्ष हो समझना चाहिए ।’ श्रागे चल कर फिर कहा है –

सारभूतं पुराणेषु केवलं वेदसम्मितम् । ततो गणेशखंडेच तज्जन्म परिकीर्तितम् |

अतीवापूर्वचरितं श्रुतिवेद सुदुर्लभम् ||
“यह ‘ब्रह्मवैवर्त पुराण’ सब पुराणों का सार है
, और केवल वेदों से सम्मत है । इसके ‘गणेश खण्ड’ में गणेश -जन्म की कथा तो ऐसी प्रपूर्व है कि उसका उदाहरण वेदों में भी मिल सकना दुर्लभ है ।”
‘ब्रह्म वैवर्त पुराण’ के ‘सृष्टि प्रकरण’ में भी अन्य पुराणों क अपेक्षा बहुत अन्तर है । अन्य सब पुराणों में अव्यक्त परम ब्रह्म को हो सृष्टि का निमित्त बतलाया है और उसी से मूल प्रकृति तथा ब्रह्मा, विष्णु आदि देवों की उत्पत्ति बतलाई है । पर ‘ब्रह्मवैवर्त’ में सब का स्रोत एक मात्र गोलोक निवासी श्रीकृष्ण को कहा है। परब्रह्म को सदाशिव कहा जाय, महाविष्णु कहा जाय अथवा श्रीकृष्ण कहा जाय, या उसको कोई शक्ति अथवा दुर्गा कहना ही पसन्द करे, तो इससे वास्तविक तथ्य में कोई अन्तर नहीं पड़ता । हम अच्छी तरह जानते हैं कि ‘भाषा-भेद’ अथवा ‘रुचि-भेद’ का ईश्वर के निकट कोई महत्व नहीं हो सकता । पर ‘ब्रह्मवैवर्त’ के लेखक ने जिस प्रकार आकस्मिक रूप से सब पदार्थों और शक्तियों की उत्पत्ति बतलाई है वह दार्शनिक और वैज्ञानिक ढंग से विचार करने वालों को श्रद्भुत ही प्रतीत होगी –
“इस विश्व को शून्यता से पूर्ण और गोलोक को भयङ्कर देख कर स्वेच्छामय प्रभु ने बिना किसी की सहायता के अपनी इच्छा से ही इस सृष्टि का सृजन करना प्रारम्भ किया। सबके आदि में परम पुरुष के दक्षिण पाश्र्व से संसार के कारण स्वरूप तीन गुण प्रकट हुए। इसके पश्चात् उनसे महत्तत्व, प्रहङ्कार, पञ्च तन्मात्रा प्रकट हुए जो रूप, रस, गन्ध, स्पर्श भोर शब्द इन संज्ञाओं वाले थे । इसके अनन्तर स्वयं नारायण प्रभु प्रविभूत हुये जो श्याम वर्ण वाले, युवावस्था से सम्पन्न थे, पीताम्बर घारी, वनमाला पहिने और चार भुजामों वाले थे । वे कामदेव को प्रभा से युक्त, रूप और लावण्य की दृष्टि से परम सुन्दर भगवान श्रीकृष्ण के सम्मुख प्रज्ञ्जलि बाँध कर उनकी स्तुति करने लगे । इसके अनन्तर श्रीकृष्ण के वाम पाश्र्व से शुद्ध स्फटिक के सहश्म पाँच मुखों वाले दिगम्बर अर्थात् बिल्कुल नग्न शिव का आविर्भाव हुआ। तपे हुए सुवर्ण के तुल्य जटाओं के भार को धारण करने वाला, परम श्र ेष्ठ, थोड़े हास्य से प्रसन्न मुख वाला, तीन नेत्र और मस्तक पर चन्द्रमा को धारण करने वाला इनका स्वरूप था । इसके अनन्तर श्रीकृष्ण की नाभि स्थित कमल से कमण्डलु और वर को धारण किये हुए ब्रह्मा जी का आविर्भाव हुप्रा । इनके वस्त्र श्वेत वर्ण के थे, और ये ‘शुक्ल दाँतों और केशों वाले चार भुजाओं से युक्त थे । ये योगी, शिल्पियों के ईश और सब के गुरु थे ।’

“इसके अनन्तर परमात्मा के वक्षस्थल से एक स्मितयुक्त, शुक्ल वर्ण का, जटाओं को धारण किये हुए पुरुष प्रकट हुप्रा, जो सब का ज्ञाता था । वह ‘धर्म” ज्ञान से युक्त,. धर्म रूप, धर्मिष्ठ और धर्म को देने वाला था। उस धर्म के वाम पाश्र्व से एक कन्या का प्राविर्भाव हुआ। यह मूर्तिमती साक्षात् दूसरी कमला (लक्ष्मी) ही थी । इसके पश्चात् परमात्मा के मुख से एक शुक्ल वर्ण वाली, करों में वीणा और पुस्तक धारण किये हुए देवी प्रकट हुई । यह करोड़ों पूर्ण चन्द्रों को शोभा से युक्त और शरत्काल के विकसित कमलों के समान नेत्रों वाली थी । “

ब्रह्मवैवर्त पुराण राधा-रहस्य –

यद्यपि ग्रन्य पुराणों में तथा प्राचीन धार्मिक ग्रन्थों में राधा के सम्बन्ध में किसी प्रकार का उल्लेख नहीं मिलता, पर ‘ब्रह्मवैवर्त’ में वही सर्वत्र व्यास है और उनका महत्व समस्त देव-देवियों से अधिक माना

गया है । यद्यपि इसमें उनके साकार रूप का वर्णन किया है और उनके रास – विलास में श्रृङ्गार रस की पराकष्ठा कर दी है। फिर भी जब हम राधा चरित्र का विवेचन करते हैं, तो वह परमात्मा को निराकार शक्ति ही प्रतीत होती हैं । उनकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में ‘राधिकाख्यान’ में कहा गया है
पुरा वृन्दावने रम्ये गोलोके रास मण्डले । शतश्ट गंकदेशे च मालती मल्लिका वने ॥ रत्नसिंहासने रम्ये तस्थौ तत्र जगत्पति । स्वेच्छामयश्च भगवान् बभूव रमगोत्सुकः || रमण कत्त, (मच्छा च तद्बभूव सुरेश्वरी | इच्छाया च भवेत् सर्व तस्य स्वेच्छामयस्य च ॥ एतस्मिन्तन्यरे दुर्गे द्विधारूपो बभूव सः । दक्षिणांगञ्च श्रीकृष्ण वामार्द्धागश्च राधिका ॥
अर्थात् ‘प्राचीन समय में उस वृन्दावन में जो गोलोक के रास मंडल में स्थित है, शतश्रृङ्ग स्थल पर, जहाँ मालती और मल्लिका की लताओं का वन है, एक रत्न सिंहासन पर जगत स्वामी श्रीकृष्ण जी विराजमान थे । उस अवसर पर उनको रमण की भावना उत्पन्न हुई । भगवान अपनी इच्छा से परिपूर्ण है, इस लिये जैसे ही इच्छा हुई वैसे ही सुरेश्वरी उपस्थित हो गई । उस स्वेच्छामय भगवान की इच्छा मात्र से सब कुछ हो जाता है, उसमें किंचित बिलम्ब नहीं हुआ करता | इस लिए रमण इच्छा होते ही वे दो रूपों में बँट गये। दाहिना भाग श्री कृष्ण रूप हो गया प्रोर बाँया भाग राधिका के रूप में हो गया ।’
यह वर्णन अलंकारिक रूप से ‘अर्धनारीश्वर’ सिद्धान्त का प्रतिपादन करता है | जैसा हम अन्य पुराणों में भो लिख चुके हैं, भू

मण्डल पर एक युग ऐसा भी था जब इस पर निवास करने वाले प्राणियों में नर-मादा का भेद न था । उसके कारण जीव जगत की प्रगति रुकी हुई थी । तब उनमें क्रमशः परिवर्तन होने लगा और ब्रह्मा जी की ‘मैथुनी सृष्टि’ प्रकट हो गई । यह सिद्धान्त इतना स्वाभाविक है कि केवल हमारे पुराणों में इसका उल्लेख नहीं किया गया है, वरन अन्य धर्मों के ग्रत्थों में भी यह पाया जाता है । ईसाइयों की बाइबिल’ में कहा गया है कि जब भगवान ने संसार में ‘आदम’ ( श्रादि मानव ) को अकेला देखा तो उसकी बाँयी पसली निकाल कर उसे एक स्त्री के रूप में निर्मित कर दिया । वही ‘आदम’ की पत्नी ‘हब्बा’ हुई । वर्त मान समय में विकास विज्ञान का अनुशीलन करने वाले वैज्ञानिक भी यही मानते हैं कि नर-मादा की रचना सृष्टि के आदिकाल की नहीं है बरन बीच के किसी युग में यह विभाजन क्रमश: हुआ है । एक अन्य मत के ‘पुराण’ में भी कहा गया हैं कि ‘मैथुनी सृष्टि’ से पूर्व संसार में जो प्रारणी थे वे ‘जुगलिय’ थे, अर्थात् नर-मादा एक साथ पैदा होते थे । थे
इस प्रकार राधा-कृष्ण ही विश्व सञ्चालक सत्ता के दो रूप हैं । वर्तमान जगत में भी हम देखते हैं कि नर और मादा का संयोग हुए बिना सृष्टि क्रम आगे नहीं बढ़ता, उसी के आवार पर मानव के मन ने विश्व नियन्ता शक्ति को भी उसी प्रकार के दो विभागों में विभाजित कर दिया है। इसके पश्चात् भक्तिमार्गीय विद्वानों ने अनेक प्रकार से उसकी व्याख्या करके उसे दार्शनिक और प्राध्यात्मिक रूप दे दिया । इसी अध्याय में रात्रा की व्याख्या करते हुए कहा गया है —
रा शब्दोच्चारणाद्भक्तो याति मुक्ति सुदुर्लभाम् । धा शब्दोच्चारणात् दुर्गे धावत्येव हरेः पदम् || रा इत्यादानवचनो धाच निर्वाण वाचकः । ततोऽवाप्नोति मुक्तिञ्च सा च राधा प्रकीर्तिता ॥

अर्थात् ‘राधा’ शब्द में ‘रा’ का उच्चारण करने से भक्त दुर्लभ मुक्ति को प्राप्त करता है और ‘घा’ के उच्चारण से भगवत् पद की तरफ दौड़ कर जाता है । ‘रा’ का प्रक्षर आदान वाचक है और ‘धा’ निर्वाण वाचक कहा गया है । इसलिये जिससे मनुष्य मुक्ति पद को प्राप्त होता है उसी को ‘राधा’ कहा गया है ।”
राधा की ‘अर्धनारीश्वर’ वाली उत्पत्ति को जान कर और उसके नाम के दोनों प्रक्षरों के आशय को समझ कर उसमें दोष या दुर्भावना का कोई कारण नहीं कहा जा सकता। चाहे दार्शनिक और योग मार्ग के अनुयायी इन बातों को महत्व देने को प्रस्तुत न हों, पर भक्ति-मार्ग वालों में इस प्रकार का भाव बहुत अधिक कल्याणकारी माना गया है । वर्तमान समय में जिस प्रकार सामान्य जनता राधा कृष्ण की रास लीलाओं को देख कर उनको केवल मुरली बजाने और नाचने वाला समझ बैठी है, वह बात उपरोक्त विवेचन में कहीं दिखाई नहीं पड़ती। इस रूप में ‘राधा’ की साधना एक उच्च माध्यात्मिक मार्ग सिद्ध हो सकती है और हमारे देश देश में एकाध सम्प्रदाय इसी भाव से उपासना करके मध्यात्म क्षेत्र में प्रगति कर भी चुका है ।

पुस्तक का विवरण (Description of Book) :-

पुस्तक का नाम (Name of Book)श्री नारद पुराण / Sri Narad Puran PDF
पुस्तक का लेखक (Name of Author)Gita Press / गीता प्रेस
पुस्तक की भाषा (Language of Book)हिंदी | Hindi
पुस्तक का आकार (Size of Book)51 MB
पुस्तक में कुल पृष्ठ (Total pages in Ebook)796
पुस्तक की श्रेणी (Category of Book)वेद-पुराण / Ved-Puran

पुस्तक के कुछ अंश (Excerpts From the Book) :-

शौनकजीने पूछा- सूतजी ! आपने कहाँके लिये प्रस्थान किया है और कहाँसे आप आ रहे हैं? आपका कल्याण हो। आज आपके दर्शनसे हमारा दिन कैसा पुण्यमय हो गया। हम सभी लोग कलियुगमें श्रेष्ठ ज्ञानसे वश्चित होनेके कारण भयभीत हैं। संसार सागरमें डूबे हुए हैं और इस कष्टसे मुक्त होना चाहते हैं। हमारा उद्धार करनेके लिये ही आप यहाँ पधारे हैं। आप बड़े भाग्यशाली साधु पुरुष हैं। पुराणोंके ज्ञाता हैं। सम्पूर्ण पुराणोंमें निष्णात हैं और अत्यन्त कृपानिधान हैं। महाभाग ! जिसके श्रवण और पठनसे भगवान् श्रीकृष्ण में अविचल भक्ति प्राप्त हो तथा जो तत्त्वज्ञानको बढ़ानेवाला हो, उस पुराणकी कथा कहिये । सूतनन्दन! जो मोक्षसे भी बढ़कर है, कर्मका मूलोच्छेद करनेवाली तथा संसाररूपी कारागारमें बँधे हुए जीवोंकी बेड़ी काटनेवाली है, वह कृष्ण-भक्ति ही जगत्-रूपी दावानलसे दग्ध हुए जीवोंपर अमृत रसकी वर्षा करनेवाली है। वही जीवधारियोंके हृदयमें नित्य निरन्तर परम सुख एवं परमानन्द प्रदान करती है। “
आप वह पुराण सुनाइये, जिसमें पहले सबके बीज ( कारणतत्त्व ) का प्रतिपादन तथा परब्रह्मके स्वरूपका निरूपण हो । सृष्टिके लिये उन्मुख हुए उस परमात्माकी सृष्टिका भी उत्कृष्ट वर्णन हो। मैं यह जानना चाहता हूँ कि परमात्माका स्वरूप साकार है या निराकार ? ब्रह्मका स्वरूप कैसा है? उसका ध्यान अथवा चिन्तन कैसे करना चाहिये? वैष्णव महात्मा किसका ध्यान करते हैं? तथा शान्तचित्त योगीजन किसका चिन्तन किया करते हैं? वेदमें किनके गूढ़ एवं प्रधान मतका निरूपण किया गया है? वत्स! जिस पुराणमें प्रकृतिके स्वरूपका निरूपण हुआ हो, गुणोंका लक्षण वर्णित हो तथा ‘महत्’ आदि तत्त्वोंका निर्णय किया गया हो; जिसमें गोलोक, वैकुण्ठ, शिवलोक तथा अन्यान्य स्वर्गादि लोकोंका वर्णन हो तथा अंशों और कलाओंका निरूपण हो, उस पुराणको श्रवण कराइये। सूतनन्दन! प्राकृत पदार्थ क्या हैं? प्रकृति क्या है तथा प्रकृतिसे परे जो आत्मा या परमात्मा है, उसका स्वरूप क्या है? जिन देवताओं और देवाङ्गनाओंका भूतलपर गूढ़रूपसे जन्म या अवतरण हुआ है, उनका भी परिचय दीजिये। समुद्रों, पर्वतों और सरिताओंके प्रादुर्भावकी भी कथा कहिये । प्रकृतिके अंश कौन हैं? उसकी कलाएँ और उन कलाओंकी भी कलाएँ क्या हैं? उन सबके शुभ चरित्र, ध्यान, पूजन और स्तोत्र आदिका वर्णन कीजिये। जिस पुराणमें दुर्गा, सरस्वती, लक्ष्मी और सावित्रीका वर्णन हो, श्रीराधिकाका अत्यन्त अपूर्व और अमृतोपम आख्यान हो, जीवोंके कर्मविपाकका प्रतिपादन तथा नरकों का भी वर्णन हो, जहाँ कर्मबन्धनका खण्डन तथा उन कर्मों से छूटनेके उपायका निरूपण हो, उसे सुनाइये। जिन जीवधारियोंको जहाँ जो-जो शुभ या अशुभ स्थान प्राप्त होता हो, उन्हें जिस कर्मसे जिन-जिन योनियोंमें जन्म लेना पड़ता हो, इस लोकमें देहधारियोंको जिस कर्मसे जो-जो रोग होता हो तथा जिस कर्मके अनुष्ठान से उन रोगोंसे छुटकारा मिलता हो, उन सबका प्रतिपादन कीजिये।

सूतनन्दन ! जिस पुराण में मनसा, तुलसी, काली, गङ्गा और वसुन्धरा पृथ्वी- इन सबका तथा अन्य देवियोंका भी मङ्गलमय आख्यान हो, शालग्राम शिलाओं तथा दानके महत्त्वका निरूपण हो अथवा जहाँ धर्माधर्मके स्वरूपका अपूर्व विवेचन उपलब्ध होता हो, उसका वर्णन | कीजिये। जहाँ गणेशजीके चरित्र, जन्म और कर्मका तथा उनके गूढ़ कवच स्तोत्र और मन्त्रोंका वर्णन हो, जो उपाख्यान अत्यन्त अद्भुत और अपूर्व हो तथा कभी सुननेमें न आया हो, वह सब मन-ही-मन याद करके इस समय आप उसका वर्णन करें। परमात्मा श्रीकृष्ण सर्वत्र परिपूर्ण हैं तथापि इस जगत्‌ में पुण्य क्षेत्र भारतवर्ष में जन्म (अवतार) लेकर उन्होंने नाना प्रकारके लीला-विहार किये। मुने! जिस पुराणमें उनके इस अवतार तथा लीला-विहारका वर्णन हो, उसकी कथा कहिये। उन्होंने किस पुण्यात्माके पुण्यमय गृहमें अवतार ग्रहण किया था? किस धन्या, मान्या पुण्यवती सती नारीने उनको पुत्ररूप से उत्पन्न किया था? उसके घरमें प्रकट होकर वे भगवान् फिर कहाँ और किस कारणसे चले गये? वहाँ जाकर उन्होंने क्या किया और वहाँसे फिर अपने स्थानपर कैसे आये? किसकी प्रार्थनासे उन्होंने पृथ्वीका भार उतारा ? तथा किस सेतुका निर्माण (मर्यादाकी स्थापना ) करके वे भगवान् पुनः गोलोकको पधारे ? इन सबसे तथा अन्य उपाख्यानोंसे परिपूर्ण जो श्रुतिदुर्लभ पुराण है, उसका सम्यक् ज्ञान मुनियोंके लिये भी दुर्लभ है। वह मनको निर्मल बनानेका उत्तम साधन है। अपने ज्ञानके अनुसार मैंने जो भी शुभाशुभ बात पूछी है या नहीं पूछी है, उसके समाधानसे युक्त जो पुराण तत्काल वैराग्य उत्पन्न करनेवाला हो, मेरे समक्ष उसीकी कथा कहिये। जो शिष्यके पूछे अथवा बिना पूछे हुए विषयकी भी व्याख्या करता है तथा योग्य और अयोग्यके प्रति भी समभाव रखता है, वही सत्पुरुषों में श्रेष्ठ सद्गुरु है।

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किस पुराण में राधा के सम्बन्ध में किसी प्रकार का उल्लेख मिलता है ?

ब्रह्मवैवर्त पुराण में.

अठारह पुराणों में सबसे प्राचीन पुराण किसे माना गया है?

अठारह पुराणों में प्राचीनतम पुराण ब्रह्मवैवर्त पुराण को माना गया है।

किस पुराण में गणेश -जन्म की कथा का उल्लेख मिलता है?

ब्रह्मवैवर्त पुराण के ‘गणेश खण्ड’ में गणेश -जन्म की कथा तो ऐसी प्रपूर्व है कि उसका उदाहरण वेदों में भी मिल सकना दुर्लभ है ।”

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