पुस्तक का विवरण (Description of Book) :-
पुस्तक का नाम (Name of Book) | अग्नि पुराण (संपूर्ण) / Agni puran PDF |
पुस्तक का लेखक (Name of Author) | Gita Press / गीता प्रेस |
पुस्तक की भाषा (Language of Book) | हिंदी | Hindi |
पुस्तक का आकार (Size of Book) | 57 MB |
पुस्तक में कुल पृष्ठ (Total pages in Ebook) | 842 |
पुस्तक की श्रेणी (Category of Book) | वेद-पुराण / Ved-Puran |
पुस्तक के कुछ अंश (Excerpts From the Book) :-
मङ्गलाचरण तथा अग्नि और वसिष्ठके संवाद- रूपसे अग्निपुराणका आरम्भ श्रियं सरस्वतीं गौरीं गणेशं स्कन्दमीश्वरम्। | तथा पैल आदि ऋषि बदरिकाश्रमको गये और
ब्रह्माणं वह्निमिन्द्रादीन् वासुदेवं नमाम्यहम् ॥ वहाँ व्यासजीको नमस्कार करके हमने प्रश्न ‘लक्ष्मी, सरस्वती, पार्वती, गणेश, कार्तिकेय, किया तब उन्होंने हमें सारतत्त्वका उपदेश देना महादेवजी, ब्रह्मा, अग्नि, इन्द्र आदि देवताओं तथा आरम्भ किया ॥ ४६ ॥
भगवान् वासुदेवको मैं नमस्कार करता हूँ’ ॥ १ ॥ व्यासजी बोले- सूत! तुम शुक आदिके साथ सुनो। एक समय मुनियोंके साथ मैंने महर्षि वसिष्ठजीसे सारभूत परात्पर ब्रह्मके विषयमें पूछा था। उस समय उन्होंने मुझे जैसा उपदेश दिया था, वही तुम्हें बतला रहा हूँ॥ ७ ॥
नैमिषारण्यकी बात है। शौनक आदि ऋषि यज्ञोंद्वारा भगवान् विष्णुका यजन कर रहे थे। उस समय वहाँ तीर्थयात्राके प्रसङ्गसे सूतजी पधारे। महर्षियोंने उनका स्वागत-सत्कार करके कहा – ॥२॥
वसिष्ठजीने कहा- व्यास! सर्वान्तर्यामी ब्रह्मके दो स्वरूप हैं। मैं उन्हें बताता हूँ सुनो! पूर्वकालमें ऋषि-मुनि तथा देवताओंसहित मुझसे अग्निदेवने इस विषयमें जैसा, जो कुछ भी कहा था, वही मैं (तुम्हें बता रहा हूँ)। अग्निपुराण सर्वोत्कृष्ट है। इसका एक-एक अक्षर ब्रह्मविद्या है, अतएव यह ‘परब्रह्मरूप’ है। ऋग्वेद आदि सम्पूर्ण वेद-शास्त्र ‘अपरब्रह्म’ हैं। परब्रह्मस्वरूप अग्निपुराण सम्पूर्ण देवताओंके लिये परम सुखद है। अग्निदेवद्वारा जिसका कथन हुआ है, वह आग्नेयपुराण वेदोंके तुल्य सर्वमान्य है। यह पवित्र पुराण अपने पाठकों और श्रोताजनोंको भोग तथा मोक्ष प्रदान करनेवाला है। भगवान् विष्णु ही कालाग्निरूपसे विराजमान हैं। वे ही
ऋषि बोले- सूतजी! आप हमारी पूजा स्वीकार करके हमें वह सारसे भी सारभूत तत्व बतलानेकी कृपा करें, जिसके जान लेनेमात्रसे सर्वज्ञता प्राप्त होती है ॥ ३ ॥
सूतजीने कहा- ऋषियो! भगवान् विष्णु ही सारसे भी सारतत्त्व हैं। वे सृष्टि और पालन आदिके कर्ता और सर्वत्र व्यापक हैं। वह विष्णुस्वरूप ब्रह्म मैं ही हूँ’- – इस प्रकार उन्हें जान लेनेपर सर्वज्ञता प्राप्त हो जाती है। ब्रह्मके दो स्वरूप जाननेके योग्य हैं- शब्दब्रह्म और परब्रह्म दो विद्याएँ भी जाननेके योग्य हैं-अपरा विद्या और परा विद्या यह अथर्ववेदकी श्रुतिका कथन है। एक समयकी बात है, मैं, शुकदेवजी
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